-जगमोहन सिंह बरहोक की कलम से
शास्त्रीय संगीत या नृत्य के कार्यक्रम पहले मध्यम या उच्च वर्ग में लोकप्रिय हुआ करते थे। ऐसे अधिकतर कार्यक्रम बड़े शहरों में या बड़े पांच तारा होटलों में आयोजित किये जाते थे और इनमें नामी हस्तियों और शख़्सियतों द्वारा उपस्थिति दर्ज़ कराई जाती थी जिनमें देशी विदेशी मेहमान भी शामिल होते थे। भरत रत्न और कई बड़े अवार्ड भी इन्हें ही मिलते थे. लेकिन समय के साथ साथ ,विशेषरूप से टीवी के आगमन के चलते, अब ऐसे कार्यक्रम अतीत की यादें बन कर रह गए हैं. ऊपरी तबके के गिने चुने लोग ही अब ऐसे कार्यक्रमों में भाग लेते हैं। परिणामस्वरूप, शास्त्रीय संगीत या शास्त्रीय नृत्य दोनों ही हमारे देश में चुनिंदा लोगों की पसंद बन कर रह गए हैं।
शास्त्रीय नृत्यांगना सितारा देवी भी एक ऐसी ही कलाकार थी जिसने देश- विदेश में ख्याति अर्जित की थी। उन्हें मुगल-ए-आज़म के निर्देशक के. आसिफ की दूसरी पत्नी होने का श्रेय दिया जाता है। पिता सुखदेव महाराज और माता मत्स्य कुमारी ने पुत्री को नृत्यशास्त्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी । सितारा देवी ने बिरजू महाराज के पिता से कथक और शास्त्रीय नृत्य की बारीकियां सीखीं। मधुबाला, माला सिन्हा रेखा और कई अन्य अभिनेत्रियों की वह आगे चल कर मार्गदर्शक बनी.
उन दिनों फिल्मों में या मंच पर नृत्य करना पुरुषों तक ही सीमित था जो महिलाओं की वेशभूषा में प्रदर्शन करते थे। सभ्य परिवारों की महिलाओं को न तो फिल्मों में काम करने की अनुमति थी और न ही मंच पर प्रदर्शन करने की। इस पृष्ठभूमि में सितारा देवी ने अदम्य साहस एवं अडिग दृढ़ संकल्प का परिचय देते हुए कथक नृत्य को पेशे के रूप में चुना और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई। बतौर क्लासिकल डांसर उन्होंने कई उपलब्धियाँ हासिल की और पुरस्कार जीते। प्रतिष्ठित रॉयल अल्बर्ट हॉल, लंदन (1967) और कार्नेगी हॉल, न्यूयॉर्क (1976) में भी उनके कार्यक्रम आयोजित किये गये। फिल्मों में भी उनका काम करना ज़ारी रहा जिनमें ‘देवदास’ (1936) ‘वतन’, ‘बागबान’, ‘होली’ (1938) ‘नजमा’ (1943), ‘हलचल’ (1951) और ”मदर इंडिया’ (1957) उल्लेखनीय रहीं । महबूब खान की “रोटी” उनकी शुरूआती फ़िल्म (1942) थी जिसमें चंद्र मोहन और शेख मुख्तार भी थे।
