जगमोहन सिंह बरहोक की कलम से
उनकी मृत्यु की वर्षगाँठ पर
हिंदी फिल्मों में छोटे समझे जाने वाले कुछ कलाकारों ने इतनी बेहतरीन और नेचुरल एक्टिंग की है कि उनके सामने बड़े बड़े कलाकार पानी मांगते नज़र आये हैं। यहाँ छोटे से मतलब कम मेहनताने से है. फिल्म फूल और कांटे के निर्माता से जब मैं मिलने गया था उस वक़्त ऐसे ही दो मंजे हुए कलाकार कमरे में फर्श पर बैठे थे और मेरे सामने निर्माता से विनती कर रहे थे कि एक बार उन्हें भी हवाई जहाज़ की सैर करा दें तो क्या अच्छा हो। मेरा मानना है कि जिस कलाकार ने यह बात कही थी उस जैसी घैंट एक्टिंग दुनियां में विरले ही कर सकते होंगे या ने की होगी लेकिन किस्मत उस पर मेहरबान नहीं रही.सब भाग्य का खेल है.

यहाँ में ऐसे ही एक अन्य कलाकार का जिक्र कर रहा हूँ जिसे लोग केश्टो मुख़र्जी के नाम से जानते हैं। बिना शराब पिये कई फिल्मों में उन्होने बेहतरीन एक्टिंग का मुजाहरा किया है और तालियां बटोरी हों पैसा भले ही न बटोरा हो.
अभिनेता देव आनंद की फिल्म असली नक़ली से अपना सफर शुरू करने वाले इस कलाकार को आपने कई फिल्मों में में शराबी,कबाबी, भिखारी या पागल की भूमिकाएं करते देखा होगा। इसे टाइप -कास्टिंग कहते हैं मतलब कि आप पर ठप्पा लग जाता है की आप ऐसे ही किरदार के लायक हो. दिलीप कुमार ने भी एक समय संजीदा फिल्मों से ब्रेक लिया था.

आरती (962),तीसरी कसम (1966),साधू और शैतान,पड़ोसन (1968), ज़ंजीर, लोफर, प्रतिज्ञा, काला सोना, चुपके चुपके, आक्रमण, शोले (1975) आदि उनकी चुनिंदा फ़िल्में हैं। ‘शोले’ में भी आपने उन्हें देखा था। फिल्म में कई अन्य हंसोड़ कलाकार भी थे जैसे जगदीप और असरानी। 1979 -80 में फिल्म द बर्निंग ट्रैन के दौरान मैंने उनको पहली बार देखा था।
